अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥40॥
अज्ञः-अज्ञानी,; च-और; अश्रद्दधानः-श्रद्धा विहीन; च-और; संशय-शंकाग्रस्त; आत्मा व्यक्ति; विनश्यति-पतन हो जाता है; न-न; अयम्-इस; लोकः-संसार में; अस्ति-है; न-न तो; परः-अगले जन्म में; न-नहीं; सुखम्-सुख; संशय आत्मन संशयग्रस्त आत्मा।
BG 4.40: किन्त जिन अज्ञानी लोगों में न तो श्रद्धा और न ही ज्ञान है और जो संदेहास्पद प्रकृति के होते हैं उनका पतन होता है। संशययुक्त जीवात्मा के लिए न तो इस लोक में और न ही परलोक में सुख है।
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भक्ति रसामृत सिंधु में साधकों को उनकी श्रद्धा और ज्ञान की योग्यता के आधार पर तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है।
शास्त्र-युक्तौ च निपुण:सर्वथा दृढनिश्चयः।
प्रौढश्रद्धोऽधिकारी यःस भक्तावुत्तमो मतः।।
यः शास्त्रादिष्वपुणः श्रद्धावान् स तु मध्यमः।।
यो भवेत् कोमलश्रद्धः स कनिष्ठो निगद्यते।।
(भक्ति रसामृत सिंधु-1.2.17.19)
"उच्चतम श्रेणी का साधक वह होता है जिसे शास्त्रयुक्ति में निपुणता और जो पूर्ण श्रद्धायुक्त होता है। मध्यम श्रेणी का साधक वह है जिसे धार्मिक ग्रंथों का ज्ञान नहीं होता किन्तु वह भगवान और गुरु के प्रति श्रद्धायुक्त होता है। निम्न श्रेणी का साधक न तो धार्मिक ग्रंथों के ज्ञान से सम्पन्न होता है और न ही उसमें श्रद्धा भावना होती है।" इस तीसरी श्रेणी के साधक के लिए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसे साधक को न तो इस जन्म में और न ही अगले जन्मों में शांति प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त सांसारिक कार्यों में भी विश्वास परम आवश्यक है।
उदाहरणार्थ अगर कोई महिला रेस्टोरेन्ट में जाती है और खाने का आर्डर देती है तो उसे यह विश्वास होता है कि रेस्टोरेंट के कर्मचारी उसके भोजन में विष नहीं मिलाएंगे। फिर भी वह यदि संदेहयुक्त होकर सभी खाद्य पदार्थों की जांच करवाने लगे, तो क्या वह भोजन का आनन्द ले सकती है? इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति नाई की दुकान में कुर्सी पर बैठता है और जब नाई तेज धार वाले उस्तरे को उसके गले पर रखता है तब ऐसे में यदि वह व्यक्ति यह संदेह करने लगे कि कहीं यह नाई मेरी हत्या तो नहीं करना चाहता तब ऐसी स्थिति में वह नाई की दुकान में सहजतापूर्वक बैठकर नाई को शेव नहीं करने देगा। इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि संदेही व्यक्ति को न तो इस संसार में और न ही परलोक में सुख मिल सकता है।